Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंबविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३२
'सेसाणं' अर्थात् पूर्व में जिन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व कहा है, उनके सिवाय शेष रही सभी प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, वहाँ तक चक्षुदर्शनावरण की तरह समझना चाहिये । इसका आशय यह हुआ कि जिन प्रकृतियों का एकेन्द्रिय भव में उदय हो, उनका तो उसी भव में दीर्घकाल पर्यन्त वेदन करने वाले क्षपितकांश जीव के जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । किन्तु उनसे शेष रही प्रकृतियों का अन्य भव में जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । ऐसी प्रकृतियों के नाम हैं___ मनुष्यगति. द्वीन्द्रियदि जातिचतुष्क, आदि के पांच संस्थान, औदारिक-अंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग, छह संहनन, विहायोगतिद्विक, त्रस, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर और आदेय । इन पच्चीस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय के भव में उदय संभव नहीं है । अतः इन प्रकृतियों का एकेन्द्रिय के भव में से एकदम निकलकर उन-उन प्रकृतियों के उदययोग्य भवों में उत्पन्न हुए क्षपितकर्मांश जीव को उस-उस भवयोग्य बहुत-सी प्रकृतियों का वेदन करते हुए जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
उस-उस भव के योग्य बहुत-सो प्रकृतियों का उदय पर्याप्त के होता है, अपर्याप्त के नहीं। अत: सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त के जघन्य प्रदेशोदय होना समझना चाहिए। क्योंकि पर्याप्त जीव के बहुतसी प्रकृतियों का उदय होता है और उदयप्राप्त प्रकृतियों का स्तिबुकसंक्रम नहीं होता है। जिससे उसको विवक्षित प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय घटित होता है ।।
तीर्थंकरनामकर्म का जघन्य प्रदेशोदय क्षपितकर्मांश तीर्थकर परमात्मा को उदय के प्रथम समय में जानना चाहिये । क्योंकि उसके
१ पर्याप्त को होता है, यह संकेत गाया में नहीं है, लेकिन पूर्वापर सम्बन्ध
और विवेचन के सामर्थ्य से उसका ग्रहण समझ लेना चाहिये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org