Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२७
उत्कृष्ट स्थितिबंध और बहुत से समय से लेकर बंधावलिका के चरम प्रदेशोदय होता है ।
३८७
दलिकों की उद्वर्तना हुई उस समय में स्त्रीवेद का जघन्य
उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि क्षपितकर्माश कोई स्त्री देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त संयम का पालन कर अन्तर्मुहूर्त आयु के शेष रहने पर मिथ्यात्व में जाकर उत्तरवर्ती भव में देवी रूप से उत्पन्न हो और वहाँ शीघ्र पर्याप्तियों को पूर्ण करे और उस पर्याप्त अवस्था में उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान वह स्त्री स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करे और पूर्वबद्ध की उद्वर्तना करे तो उस उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर आवलिका के चरम समय में स्त्रीवेद का जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
यहाँ देशोन पूर्वकोटि पर्यंन्त आदि कहने का कारण यह है कि देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त चारित्र में स्त्रीवेद का बंध नहीं करता है, मात्र पुरुष - "वेद का ही बंध करता है और उसमें स्त्रीवेद संक्रांत करता है, जिससे स्त्रीवेद के दलिक कम होते हैं । इसीलिये देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त संयम पालन करने का विधान किया है। ऊपर के गुणस्थानों में यदि मरण को प्राप्त हो तो बाद के भव में पुरुष होता है किन्तु स्त्री नहीं, इसी - लिये अंतिम अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व में जाना सूचित किया है। अपर्याप्त अवस्था में उत्कृप्ट स्थिति का बंध नहीं होता है, अतः पर्याप्त अवस्था हो, यह बताया है और उत्कृष्ट स्थिति का बंध इसलिये कहा कि उस समय उद्वर्तना अधिक प्रमाण में होती है और अधिक प्रमाण में उद्वर्तना होने से नीचे के स्थान में दलिक अत्यल्प प्रमाण में रहते हैं, जिससे बंधावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है । आवलिका का चरम समय इसलिये बताया है कि बंधावलिका के पूर्ण होने के बाद बंधे हुए भी उदीरणा से उदय में आते हैं और ऐसा होने से जघन्य प्रदेशोदय नहीं होता है । इसलिये बंधावलिका का चरम समय ग्रहण किया है । तथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org