Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह :
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में आने के बाद मिथ्यात्व के निमित्त से अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त जो अनन्तानुबन्धिका बन्ध करता है, उसमें अत्यल्प ही संक्रमित होते हैं । इसलिये चार बार मोहनीय के उपशम को ग्रहण किया है ।
उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बांध कर एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व के काल में अनन्तानुबंधि के दलिकों को दूर करता है । जिससे मिथ्यात्व में आने के बाद बंधावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय संभव है । तथा
इत्थीए संजमभवे सव्वनिरुद्ध मि गंतु मिच्छं तो । देवी लहु जिट्ठट्ठिई उव्वट्टिय आवली अंते ॥ १२७॥
शब्दार्थ - इत्थीए - स्त्री, संजमभवे - संयम भव में सम्बनिरुद्धमि - सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त के अंत में, अंतिम समय में, गंतु—जाकर, मिच्छंमिथ्यात्व, तो- तब, देवी-देवी, लहु - शीघ्र, जिट्ठट्ठिई - उत्कृष्ट स्थिति, उध्वट्टिय - उद्वर्तना करके, आवली अंते - आवलिका के अंतिम समय में ।
गाथार्थ - संयमभव की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहे तब अंतिम समय में कोई स्त्री मिथ्यात्व में जाकर देवी रूप से उत्पन्न हो और वहाँ शीघ्र ही स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति की और सत्तागत स्थिति की उद्वर्तना करे तो उसे बंधावलिका के अंतिम समय में स्त्रीवेद का जघन्य प्रदेशोदय होता है ।
विशेषार्थ - संयम द्वारा उपलक्षित भव यानि संयम द्वारा जो भव पहिचाना जाये, जिस भव में स्वयं ने चारित्र का पालन किया है, उसे सयमभव कहते हैं । उस भव के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर मरण को प्राप्त कर देवी रूप से उत्पन्न हो और उस देवी पर्याय में शीघ्र ही पर्याप्तियों को पूर्ण कर स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करे और सत्तागत रहे हुए प्रभूत दलिकों को उद्वर्तना करे तो जिस समय में
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