Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंच संग्रह : ५
मिथ्यात्व में गया और मिथ्यात्व में जाकर मरण को प्राप्त हो द्वीन्द्रिय में उत्पन्न हुआ। वहाँ द्वीन्द्रियप्रायोग्य स्थिति की सत्ता को छोड़कर शेष समस्त स्थिति की अपवर्तना करे और अपवर्तना करने के बाद वहाँ से मरकर खर बादर पृथ्वीकायत्व प्राप्त किया और वहाँ शीघ्र शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हो तो पर्याप्त होने के बाद प्रथम समय में आतप. नामकर्म का वेदन करते हुए उस पृथ्वीकाय को आतपनामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। __ आतप का उदय खर बादर पृथ्वीकाय के होता है, अतः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना बताया है तथा पंचेन्द्रिय में से सीधे एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना न कहकर द्वीन्द्रिय में जाकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होना कहने का कारण यह है कि द्वीन्द्रिय में से एकेन्द्रिय में गया जीव उसकी स्थिति को कम करके स्वयोग्य कर सकता है । परन्तु पंचेन्द्रिय में से एकेन्द्रिय में गया जीव अथवा पंचेन्द्रिय में से त्रीन्द्रियादि में जाकर एकेन्द्रिय हुआ जीव एकदम उसकी स्थिति को स्वयोग्य नहीं कर सकता है, मात्र द्वीन्द्रिय की स्थिति को ही शीघ्रता से स्वयोग्य कर सकता है । यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशोदय के अधिकार में शीघ्रता से करने वाले जीव को ग्रहण किया जाता है, इसलिये पचेन्द्रिय में से द्वीन्द्रिय में जाकर एकदम स्थिति की अपवर्तना कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो और वहाँ भी शीघ्र शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हो, ऐसा कहा है।
आतप का उदय शरीरपर्याप्ति पूर्ण करने के बाद ही होता है, इसलिये उसको पूर्ण करने के अनन्त रवर्ती पहले समय में उसका बेदन करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, यह कहा है। .
इस प्रकार से पृथक-पृथक् प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोदयस्वामित्व का निर्देश करने के बाद अब जघन्य प्रदेशोदय के स्वामियों को बतलाते
जघन्य प्रदेशोदयस्वामित्व
देवो जहन्नयाऊ दीहुन्वट्टित्त मिच्छ अन्तम्मि । चउनाणदंसणतिगे एगिदिगए जहन्नुदयं ॥१२०॥
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