Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११८
३७३ हो, उस-उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। सर्वविरति से अविरति में आने पर भी उसके निमित्त से हुई दलरचना रह जाती है, जिससे कोई विरोध नहीं है। __ अब यदि उसी आत्मा ने नारक-आयु का बंध किया हो और उस श्रेणि का शीर्षभाग प्राप्त होने के पहले मरकर नारक हो तो गुणश्रेणिशीर्ष पर रहते उसे पूर्वोक्त दुर्भगादि चार और नरकद्विक इस तरह छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और कदाच असंख्यात वर्ष वाले तिर्यंच की आयु का बध किया हो और मरकर तिर्यंच हो तो उसे तिर्यंचद्विक के साथ पूर्वोक्त दुर्भगादि चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा भोगभूमिज मनुष्य सम्बन्धी आयु का बंध किया हो और मनुष्य हो तो उसे मनुष्यानुपूर्वी के साथ पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । तथा
संघयणपंचगस्स उ बिइयादि तिगुणसेढिसीसम्मि । आहारुज्जोयाणं अपमत्तो आइगुणसीसे ॥११८॥
१. किसी भी भावी आयु का बंध न किया हो या नारक, वैमानिक देव
या असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यंच की आयु बांधी हो, वही क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। इसीलिये भोगभूमिज विशेषण दिया है । तिर्यंच के तो भवाश्रित नीचगोत्र का ही उदय होता है और मनुष्य को चौथे गुणस्थान में उसका उदय हो सकता है, पांचवें और उससे आगे के गुणस्थानों में तो मनुष्य को गुणप्रत्यय से उच्चगोत्र का ही उदय होता है । यदि पहले नीचगोत्र का भी उदय हो तो वह भी बदल जाता है और वहाँ से गिरने पर चौथे गुणस्थान में आये तो जो मल हो, उसी गोत्र का भी उदय हो सकता है । जिससे उसका मनुष्यादि को चौथे गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशोदय घटित होता है । क्षायिक सम्यक्त्वी वैमानिक देवों में जाने वाला होने से और वहाँ दुर्भगादि का उदय नहीं होने से देवगति में उनका उत्कृष्ट प्रदेशोदय नहीं बताया है ।
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