Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७, १०८
३५६ गुणश्रेणियों में होने वाली दलरचना और कालप्रमाण के उक्त कथन का आशय यह है कि सम्यक्त्वनिमित्तक गुणश्रेणि दीर्ध अन्तमुहूर्त प्रमाण वाली होती है। उससे संख्यातगुणहीन अन्तर्मुहूर्त में भोगी जाने वाली और असंख्यातगुण अधिक प्रदेशवाली देशविरतिनिमित्तक गुणश्रेणि होती है । इस प्रकार संख्यातगुणहीन-संख्यातगुणहीन अन्तमुहूर्त में वेदन करने योग्य और असंख्यातगुण-असंख्यातगुण अधिक दलरचना वाली उत्तरोत्तर गुणश्रेणियां हैं।
अनुक्रम से उत्तरोत्तर गुणश्रेणि में न समान और न कम किन्तू असंख्यातगुण-असंख्यातगुण दलिक होने का कारण यह है कि सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है। उसके परिणामों की मंदता होने से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में होने वाली दलरचना में दलिक अल्पप्रमाण में होते हैं और सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद जो गुणश्रोणि होती है, वह पूर्वोक्त गुणश्रेणि की अपेक्षा अत्यंत विशुद्ध परिणाम होने से असंख्यातगुण दलरचना वाली होती है। इस प्रकार सम्यक्त्व उत्पन्न होने और सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद होने वाली गुणश्रोणि में दलिकरचना का तारतम्य जानना चाहिये। उससे भी देशविरति की गुणश्रेणि असंख्यातगुण अधिक दलरचना वाली होती है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशविरत जीव अत्यधिक विशुद्ध परिणाम वाला है। उससे भी सर्वविरति आदि आगे की गुणश्रेणियों में उत्तरोत्तर प्रवर्धमान विशुद्धि होने से असंख्यातगुण-असंख्यातगुण अधिक दलरचना होती है, परन्तु समान या न्यून नहीं होतो है और इसी कारण उत्तरोत्तर गुणश्रेणि में वर्तमान जीव असंख्यातगुण-असंख्यातगुण अधिक कर्मों की निर्जरा करनेवाले हैं।
प्रदेश और काल की अपेक्षा इस कथ को सरलता से समझने के लिए निम्नलिखित प्रारूपों को देखिये
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