Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
शर्मसूरि एकसौ अट्ठावन प्रकृतियां' मानते हैं । अत: उनके अभिप्रायानुसार ध्रुवोदया प्रकृतियां अड़तालीस होती हैं । जो इस प्रकार हैं
ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क मिथ्यात्व - मोहनीय, वर्णादि बीस, तेजस - कार्मणसप्तक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु और निर्माण ।
इन अड़तालीस प्रकृतियों का उदय होइ अणाइअणतो अणाइसंतो' अनादि-अनन्त और अनादि-सांत इस तरह दो प्रकार का है । जो इस तरह से जानना चाहिए कि अभव्य की अपेक्षा उक्त प्रकृतियों का उदय अनादि - अनन्त है । क्योंकि अभव्यों के इन प्रकृतियों का अनादि काल से उदय है और किसी भी समय उदयविच्छेद संभव नहीं है तथा भव्यों की अपेक्षा अनादि-सांत है । क्योंकि मोक्ष में जाने पर इनका उदयविच्छेद अवश्यंभावी है। इन ध्र वोदया अड़तालीस प्रकृतियों में से उदय की अपेक्षा मिथ्यात्व की विशेषता का स्पष्टीकरण आगे किया जा रहा है।
उक्त ध्रुवोदया प्रकृतियों से शेष रही अध्र वोदया एक सौ दस प्रकृतियों का उदय सादि-सांत है - 'साइसपज्जवसाणो अधुवाणं'। इसका कारण यह है ये सभी प्रकृतियां अध्र वोदय होने से परावर्तित हो - होकर उदय में आती हैं । इसीलिये अध्रुवोदया प्रकृतियों का उदय सादि-सांत है तथा ध्रुवोदया होते हुए भी मिथ्यात्वमोहनीय का उदय भी सादिसांत है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१. कर्म प्रकृतिकार के अभिप्राय से बंधन नाम के पन्द्रह भेद होने से आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां एक सौ अट्ठावन होती हैं किन्तु पंचसंग्रहकार पांच बंधन मानने वाले होने से एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियां मानते हैं । किन्तु यहाँ कर्म प्रकृतिकार के अभिप्रायानुसार वर्णन किये जाने से एकसौ अट्ठावन प्रकृतियां कही हैं । यह विवक्षाभेद है, मतान्तर नहीं है ।
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