Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : ८८, ८६, ६०
२६५
इस प्रकार से तीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के विकल्पों को जानना चाहिए। अब उक्त तीस प्रकृतियों के एवं शेष रही प्रकृतियों के प्रदेशबंधविकल्पों को बतलाते हैं
पूर्वोक्त तीस प्रकृतियों के शेष रहे जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट रूप तीन प्रदेशबंधप्रकार सादि-अध्र व (सांत) होते हैं। इनमें से उत्कृष्ट के सादि-सांत विकल्पों का विचार तो ऊपर किया जा चुका है । अतः तदनुसार समझ लेना चाहिये और जघन्य अत्यन्त अल्प वीर्य वाले, अपर्याप्त, भव के प्रथम समय में वर्तमान सूक्ष्म निगोदिया जीव के होता है। दूसरे समय में उसे ही अजघन्य होता है । पुनः संख्यात अथवा असंख्यात काल जाने पर उक्त स्वरूपवाली निगोदावस्था के प्राप्त होने पर जघन्य प्रदेशबंध होता है । अतः वे दोनों सादि, अध्र व (सांत) हैं। -- इस प्रकार से सैंतालीस ध्र वबंधिनी प्रकृतियों में से तीस प्रकृतियों के बंधप्रकारों के विकल्पों का निर्देश करने के बाद शेष रही सत्रह प्रकृतियों के बंधप्रकारों के विकल्पों का विचार करते हैं कि मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, स्त्यानद्धित्रिक, अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण, उपघात और वर्णचतुष्क रूप सत्रह ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों प्रदेशबंधप्रकार सादि और अध्र व विकल्प वाले होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
स्त्यानद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबांधिकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सातकर्म के बंधक, उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान मिथ्या दृष्टि को एक अथवा दो समय होता है। सम्यग्दृष्टि जीव इन आठ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। इसीलिये मिथ्या दृष्टि जीव बताया है। उत्कृष्ट योगस्थान से मध्यम योगस्थान में आने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । पुन: कालान्तर में उत्कृष्ट योगस्थान के प्राप्त होने पर उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। इस प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org