Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
३०५ औदारिक अंगोपांग, मनुष्य द्विक और त्रसनामकर्म इन नौ प्रकृतियों का अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंधक और उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्या दृष्टि जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है।
पराघात उच्छ वास और पर्याप्त नामकर्म का एकेन्द्रिय योग्य पच्चोस प्रकृतियों का बंधक, उत्कृष्ट योग सम्पन्न मिथ्या दृष्टि स्वामी है और आतप व उद्योत का एकेन्द्रिय योग्य छब्बीस का बंधक स्वामी है।
स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, देवद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय, अशुभऔर अस्थिर
१. प्रकृत में पच्चीस प्रकृतिक स्थान में संकलित प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
तिर्यंचद्विक, शरीरत्रय-औदारिक, तेजस, कार्मण-विकलत्रय और पंचेन्द्रियजाति में से कोई एक, हुँडसंस्थान, औदारिक-अंगोपांग, वर्ण चतुष्क, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, सेवार्त संहनन, प्रत्येक, अस्थिर,
अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीति और निर्माण । २. देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बांधने पर दुर्भग और अनादेय का
बंध नहीं होता है । परन्तु आचार्य मलयगिरि ने बताया है, जिसका आशय समझ में नहीं आया। क्योंकि इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस प्रकृतियों को बांधने वाला मिथ्यादृष्टि अधिकारी है। अस्थिर और अशुभ के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का भी वही अधिकारी संभव है।
पंचसंग्रह की स्वोपज्ञवृत्ति में इन दुर्भग आदि चारों का एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस का बंधक स्वामी बताया है-तिर्यग्द्विकै केन्द्रियजाति....... (दुःस्वरवर्ज) स्थावरादिनव""""एकेन्द्रियप्रायोग्यत्रयोविंशति बंधके ।
दि. पंचसंग्रह (शतक गाथा ५०८, ५०६) को टीका में इन चारों प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक मिथ्यादृष्टि जीव बताया है।
विद्वज्जन इस भिन्नता को स्पष्ट करने की कृपा करें।
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