Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५
३२३ सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिश्र गुणस्थान के काल से अन्तरित एक सौ बत्तीस सागरोपम काल इस प्रकार से जानना चाहिए
कोई एक मनुष्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करके उत्तम श्रावकपने का पालन कर बाईस सागरोपम की आयु से अच्युतस्वर्ग में जाये । वहाँ से च्यवकर पुनः मनुष्य हो उत्तम श्रावकपने का पालन कर अच्युतदेवलोक में जाये और वहाँ से च्यवकर पुनः मनुष्य हो अच्युतदेवलोक में जाये और वहाँ से च्यवकर मनुष्य हो । इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का बीच में होने वाले मनुष्यभव अधिक छियासठ सागरोपम का काल होने से अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में जाकर पुनः क्षायोपमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर उत्तम मुनिधर्म का पालन कर , तेतीस सागरोपम की आयु से विजयादि चार में से किसी महाविमान में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यवकर मनुष्य हो अनुत्तर मुनिधर्म का पालनकर दूसरी बार विजयादि विमानों में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यवकर मनुष्य हो । अब यदि उस भव में मोक्ष न जाये तो सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जायेगा। इस प्रकार बीच में होने वाले मनुष्य के भवों से अधिक और अन्तमुहूर्त मिश्रगुणस्थान के काल से अन्तरित एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्वादि गुणस्थानों में रह सकता है और वहाँ उक्त सात प्रकृतियों को बांधता रहता है। तत्पश्चात् मोक्ष में न जाये तो सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाकर उक्त सात प्रकृतियों की विरोधी प्रकृतियों को बांधता है।
मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक अंगोपांग और वज्रऋषभ
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