Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पचसंग्रह : ५ मिथ्या दृष्टि के ये दोनों क्रमशः होते रहने के कारण सादि, अध्र व (सांत) हैं। तथा
तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, वर्णचतुष्क और निर्माण, नामकर्म की इन नौ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नामकर्म की तेईस प्रकृतियों के बंधक उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के एक अथवा दो समय पर्यन्त होता है। इसके सिवाय नामकर्म की पच्चीस आदि प्रकृतियों के बंधक के अधिक भाग होने से उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं होता है। तत्पश्चा। समयान्तर में अनुत्कृष्ट होता है तथा पुनः कालान्तर में उत्कृष्ट होता है। इस प्रकार क्रमशः होने के कारण दोनों सादि-अध्र व (सांत) है। ___ जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध का विचार तीस प्रकृतियों के संदर्भ में जैसा पूर्व में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये।
इस प्रकार से ध्र वबंधिनी सैंतासीस प्रकृतियों के सादि आदि भगों का विचार जानना चाहिये। ___अध्र वबंधिनी समस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों विकल्प उनका अध्रुवबंध होने से ही सादि और अध्र व-सांत जानना चाहिये ।
प्रदेशबंध की अपेक्षा मूल एवं उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा उक्त प्रकार से जानना चाहिये।
सादि-अनादि प्ररूपणा करने के अनन्तर अब क्रमप्राप्त स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं। इस प्रदेशबंध-स्वामित्व के दो प्रकार हैं-१ उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वामित्व २ जघन्य प्रदेशबंध-स्वामित्व । ये दोनों भी प्रत्येक
१. प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थानों का निर्देश पूर्व में किया
गया है। २. दिगम्बर कर्मसाहित्य में की गई प्रदेशबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा के
लिये देखिये पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४६८-५०१ ।
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