Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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९ वाह।
पंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
३०१ तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, वर्णचतुष्क और निर्माण इन नौ प्रकृतियों का सात कर्म का बंधक और उसमें भी नामकर्म की एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस प्रकृतियों को बांधने वाला, उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्या दृष्टि जीव एक या दो समय पर्यन्त उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है।
मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी और स्त्यानद्धित्रिक रूप ध्र वबंधिनी प्रकृ. तियों और अध्र वबधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व का विचार स्वयं ग्रन्थकार आगे करने वाले हैं। अतः यहाँ उनका विचार नहीं किया है।
इस प्रकार ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चार प्रकारों के सादि आदि विकल्पों, मूल प्रकृतियों एवं ध्र वबंधिनी उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व और अध्र वबंधिनी उत्तर प्रकृतियों के भी उत्कृष्टबध आदि चारों प्रकारों के सादि आदि विकल्पों को बतलाने के बाद अब अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट एव सामान्य से सभी प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध-स्वामित्व के सामान्य नियम के निर्देशपूर्वक स्वामित्व को बतलाते हैं। अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के स्वामित्व का नियम व स्वामी
अप्पतरपगइबंधे उक्कडजोगी उ सन्निपज्जत्तो । कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स वच्चासे ॥६॥
शब्दार्थ-अप्पतरपगइबंधे-अल्पतर प्रकृतियों का बंध होने पर, उक्कडजोगी-उत्कृष्ट योग वाला, उ-और, सन्निपज्जत्तो-संज्ञी पर्याप्तक, कुणह
१. तुलना कीजिये
उक्कस्सजोग सण्णी पज्जतो पयडिबंधमप्पयरं । कुण इ पदेसुक्कस्सं जहण्णयं जाण विवरीयं ॥
-दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ५१० Jain Education International For Private & Personal Use Only
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