Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
प्रवेश होने से इन दोनों कर्मों की प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं होता है । क्योंकि ज्ञानावरण और अन्तराय इन दोनों कर्मों की उत्तर प्रकृतियों का एक साथ बंधविच्छेद होता है । तथा
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'आउगस्स नियगाओ' अर्थात् आयु का अपनी स्वजातीय प्रकृति को प्राप्त भाग के प्रवेश द्वारा ही उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । जो इस प्रकार समझना चाहिये - आयुकर्म के बंध के समय जीव आठों मूल प्रकृतियों का बंधक होता है । इसलिये अन्य प्रकृति के भाग का प्रवेश होने से उसका उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं होता है । किन्तु स्वजातीय प्रकृति द्वारा लभ्य भाग के प्रवेश द्वारा ही होता है । इसका कारण यह है कि आयुकर्म के अवान्तर भेद चार हैं और तथाप्रकार का जीवस्वभाव होने से एक समय चार में से किसी भी एक आयु का ही बंध होता है, अधिक का बंध नहीं होता है । जिससे शेष तीन आयु का भाग भी बध्यमान किसी एक ही आयु को प्राप्त होता है । इसलिये स्वकीय - स्वजातीय प्रकृति द्वारा लभ्य प्राप्त करने योग्य भाग के प्रवेश द्वारा ही उसका उत्कृष्ट प्रदेशबंध संभव है । तथा
'सेसाणं उभयओ होइ' अर्थात् पूर्वोक्त से शेष रहे दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम और गोत्र इन पांच कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वकीय- अपनी स्वजातीय और परकीय-अन्य प्रकृतियों के भाग का प्रवेश होने से, इस प्रकार दोनों रूप से होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
मोहनीय कर्म की कुछ एक प्रकृतियों का आयुबंध के विच्छेदकाल में उस आयु के भाग का प्रवेश होने से उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है और कितनी ही प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध स्वजातीय प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद उन विच्छन्न हुई प्रकृतियों के भाग का प्रवेश होने से होता है। इसी प्रकार दर्शनावरण, वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के लिये भी समझ लेना चाहिये ।
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