Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार गाया ८८, ८६, ६०
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अब मोहनीयकर्म के शेष रहे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादित्व आदि विकल्पों को स्पष्ट करते हैं-
अति संक्लिष्ट परिणामी अर्थात् उत्कृष्ट योगस्थान में वर्तमान यानि अत्यन्त बलवान तथा सात कर्मों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि अथवा उपलक्षण से सम्यग्दृष्टि जीव के एक अथवा दो समय उत्कृष्ट प्रदेशबध और उसके बाद शेषकाल में अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । पुनः इसी तरह कालान्तर में उत्कृष्ट और उसके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । इस तरह क्रमशः एक के बाद दूसरे के होने से दोनों 'साइ अधुवाओ' - सादि, अध्रुव हैं ।
इस प्रकार से मूल प्रकृतियों सम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए | अब क्रम प्राप्त उत्तर प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं ।
उत्तर प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा
नाणंतरायनिद्दा अणवज्जकसाय भयदुगंछाण | दंसणच उपयलाणं चउवि (व्वि) गप्पो अणुक्कोसो ॥ ८८ ॥ तिययअबंधचुयाणं णुक्कोसो साइणाइ तमपत्ते । सेसा साइ अधुवा सव्वे सव्वाण सेसपगईणं ॥ ८६ ॥ साई अधुवोऽधुवबंधियाणऽध्रुवबंधणा चेव ।
शब्दार्थ - नाणंतराय -- ज्ञानावरण, अन्तराय, निद्दा-निद्रा- अणवज्जकसाय - अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष कषाय, भयदुगंछान -: -भय और जुगुप्सा, दंसणचउ - दर्शनावरणचतुष्क, पयलाणं - प्रचला का, चउविगप्पोचार प्रकार का, अणुक्कोसो- अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध |
निययअबंधचयाणं - अपने अबंधस्थान से गिरे हुओं को, णुक्कोसो-नुत्कृष्ट प्रदेशबंध, साइ- सादि, गाइ- अनादि, तमपत्त
-उस स्थान की प्राप्ति
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