Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
नहीं करने वाले के, सेसा - शेष प्रकार, साई अधुवा -- सादि, अध्र ुव (सांत), सव्वे - सब, सव्वाण - सभी, सेरुपगईणं - शेष प्रकृतियों के
साई - सादि, अध्रुवा - अध्र ुव (सांत ), अधुवबंधियाण --अध्र ुवबंधिती प्रकृतियों के, अधुव बंधणा चेव - अध्र ुवबंधिनी होने से ही ।
गाथार्थ - ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, निद्रा, अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, दर्शनावरणचतुष्क और प्रचला का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चार प्रकार का है। (पूर्वोक्त तीस प्रकृतियों का ) अपने अबंधस्थान से गिरे हुओं को अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है जिससे वह सादि है और उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों के अनादि है । उक्त प्रकृतियों के शेष विकल्प तथा शेष सभी प्रकृतियों के सब विकल्प सादि, अध्रुव (सांत) हैं ।
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अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के अध्र वबंधिनी होने से उनके उत्कृष्ट आदि विकल्प सादि, अध्रुव (सांत ) हैं ।
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विशेषार्थ - यहाँ प्रदेशबंध की अपेक्षा ध्रुवबंधिनी और अध्रुवबंधिनी के क्रम से उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा की है । ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां संतालीस और अध वर्बाधिनी प्रकृतियां तिहत्तर हैं । सुगमता की दृष्टि से यह सादि-अनादि प्ररूपणा करने के लिए ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के दो विभाग किये हैं । प्रथम विभाग में ज्ञानावरणपंचक आदि भय, जुगुप्सा पर्यन्त तीस प्रकृतियां हैं और द्वितीय विभाग मिथ्यात्व आदि निर्माण पर्यन्त सत्रह प्रकृतियों का है ।
प्रथम विभाग की ज्ञानावरणपंचक आदि तीस प्रकृतियों के लिए संकेत किया है- 'चउविगप्पो अणुक्कोसो' इनका अनुकृष्ट बंधप्रकार सादि आदि चारों भग वाला है और साथ ही अनुकृष्ट बध को सादि, अनादि भंग वाले होने के कारण को स्पष्ट किया है कि यह अनुत्कृष्ट बंध अपने अबंधस्थान से गिरने वालों को अपेक्षा सादि और उस
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