Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंध विधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६
जिसकी स्थिति अधिक, उसको भाग अधिक और जिसकी स्थिति थोड़ी, उसका भाग अल्प होता है । जब आठ प्रकार के कर्मबंध में हेतुभूत अध्यवसाय प्रवर्तमान होता है, तब उसके कारण गृहीत दलिक को जीव आठ भागों में विभाजित करता है । जिसका विस्तार से विचार पूर्व में किया जा चुका है ।
२७७
अब सात कर्मों के भाग-विभाग का विचार करते हैं कि जब सात कर्म के बंध में हेतुभूत अध्यवसाय प्रवर्तमान होता है, तब उसके कारण ग्रहण किया गया कर्मदलिक सात कर्मों में विभाजित करता है । उसमें नाम और गोत्र कर्म का भाग सबसे अल्प किन्तु स्वस्थान में परस्पर तुल्य है । उनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का भाग अधिक है । क्योंकि नाम और गोत्र से उनकी स्थिति अधिक है । किन्तु स्वस्थान में परस्पर एक-दूसरे का भाग समान है । उनसे भी मोहनीय का भाग विशेषाधिक है । क्योंकि ज्ञानावरणादि से भी उसकी स्थिति अधिक है और उससे भी वेदनीय का भाग विशेषाधिक है । वेदनीयकर्म का सर्वोत्कृष्ट भाग होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है ।
अब छह कर्मों के भाग- विभाग को बतलाते हैं कि छह कर्म के बंध में हेतुभूत अध्यवसाय के कारण बांधे गये कर्मदलिक के छह भाग होते हैं। यानी उसको छह भागों में विभाजित कर देता है । उसमें भी भाग- विभाग का विचार पूर्व के समान जानना चाहिए । यथा नाम और गोत्र का भाग अल्प किन्तु परस्पर तुल्य । उनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का भाग अधिक किन्तु स्वस्थान में इन तीनों का परस्पर तुल्य और इनसे भी वेदनीय का भाग अधिक है ।
लेकिन जब मात्र एक वेदनीयकर्म का बंध हो तब योगवशात् बांधा गया जो कुछ भी कर्मदलिक हो, वह सबका सब उस बंधने वाले सातावेदनीय रूप ही परिणमित होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org