Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : ७
१६ इस प्रकार से मूल कर्मों की उदीरणाविधिविषयक अपवाद जानना चाहिये। अब उत्तरप्रकृतियों की उदीरणाविधि का कथन प्रारम्भ करते हुए यह बतलाते हैं कि किस प्रकृति की किस गुणस्थान तक उदीरणा होती है। उत्तरप्रकृतियों की गुणस्थानों में उदीरणाविधि
सायासायाऊणं जाव पमत्तो अजोगि सेसुदओ।
जा जोगि उईरिज्जइ सेसुदया सोदयं जाव ॥७॥ शब्दार्थ-सायासायाऊणं-साता, असाता और (मनुष्य) आयु, जावपर्यन्त, पमत्तो-प्रमत्त गुणस्थान, अजोगि-अयोगिकेवलगुिणस्थान, सेसुदओशेष उदयप्राप्त, जा-पर्यन्त, जोगि-सयोगि, उईरिज्जइ-उदीरणा करते हैं, सेसुदया-शेष उदयप्राप्त, सोदयं-अपने उदय, जाव-पर्यन्त ।
गाथार्थ-साता, असाता वेदनीय और (मनुष्य) आयु की उदीरणा प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होती है । इनसे शेष रही अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदय-प्राप्त प्रकृतियों की उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त होती है और इनसे भी शेष उदयप्राप्त प्रकृतियों की उदीरणा अपने उदय पर्यन्त होती हैं। . विशेषार्थ-कर्मविचारणा के प्रसंग में सामान्य से उदययोग्य उत्तरप्रकृतियों की संख्या एक सौ बाईस कही गई है और उदीरणा योग्य प्रकृतियों की संख्या भी इतनी ही है। उनमें से किस गुणस्थान तक किस प्रकृति की उदीरणा होती है, यह विचार इस गाथा में किया गया है---
'सायासायाऊणं जाव पमत्तो' अर्थात् वेदनीय कर्म की सातावेदनीय, असातावेदनीय इन दो उत्तरप्रकृतियों तथा मनुष्यायु इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक होती है किन्तु अप्रमत्त आदि आगे के गुणस्थानों में नहीं होती है। इसका कारण यह है कि इन तोन प्रकृतियों की उदीरणा में प्रमत्त दशा के परिणाम हेतु हैं और
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