Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व इस प्रकार चार भेद वाले होते हैं ।। इन सादि आदि के लक्षण इस प्रकार हैं
जो आदि सहित हो अर्थात् जिसका प्रारम्भ हो, छूटकर जिसका पुनः बंध हो, उसे सादि और जो प्रारम्भ रहित हो अर्थात् शुरुआत न हो, अनादि काल से जिसके बंध का अभाव न हो, उसे अनादि कहते हैं । जो अन्त सहित बंध हो उसे सांत-अध्र व और जिसका निरन्तर बंध हुआ करे, उसे अनन्त-ध्रुव बंध कहते हैं।
ये सादि आदि बंध मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से दो-दो प्रकार के हैं-'ते दुविहा पुण नेया मूलुत्तरभेएणं'।
यहाँ बंधादि भेदों का संक्षेप में कथन किया है। विस्तार से यथास्थान आगे विचार किया जा रहा है । अब मूल और उत्तर प्रकृतियों में बंध के अन्य सम्भव चार भेदों को बतलाते हैं। बंध के अन्य चार भेद
भूओगारप्पयरग अव्वत्त अवढिओ य विन्नेया । मूलुत्तरपगइबंधणासिया ते इमे सुणसु ॥१२॥
शब्दार्थ-भूओगारप्पयरग-भूयस्कार, अल्पतर, अव्वत-अवक्तव्य, अवट्ठिओ-अवस्थित, य-और, विन्नेया-जानना चाहिए. मूलुत्तरपगइबंधणासिया-मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंधाश्रित, ते इमे-उनको, सुणसुसुनो।
१ गो. कर्मकांड में भी इसी प्रकार बंध के भेदों को बतलाया है
पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधोत्ति चदुविहो बंधो । उक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णगंति पुधं ॥ सादि अणादी ध्रुव अद्धवो व बंधो दु जेट्ठमादीसु । णाणेगं जीवं पडि ओघारे से जहा जोग्गं ।।
-गो. कर्मकाण्ड, गा. ८६, ६०
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