Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४०
१६७ यह शंका का पूर्वपक्ष है । जिसका अब ग्रन्थकार आचार्य समाधान करते हैं
पुव्वाकोडी जेसिं आऊ अहिकिच्च ते इमं भणियं । भणि पि निय अबाहं आउं बंधति अमुयंता॥४०॥
शब्दार्थ-पुव्वाकोडी--पूर्वकोटि, जेसि-जिनकी, आऊ-आयु, अहिकिच्च-अधिकृत करके, अपेक्षा से, ते-वह, इमं-यह, भणियं-कहा गया है, भणिअं-कहा है, पि -भी, निय-अपनी, अबाहं-अबाधा, आउं-आयु को, बंधंति-बांधते हैं, अमुश्ता-नहीं छोड़ते।
गाथार्थ-जिनकी पूर्वकोटि वर्ष आयु है, उनकी अपेक्षा यह कहा गया है कि दो भाग बीतने के बाद तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं एवं उन्हीं की अपेक्षा यह कहा है कि वे पूर्वकोटि का त्रिभाग रूप अपनी अबाधा को नहीं छोड़ते हैं। अर्था । पूर्वकोटि का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बंध करते हैं, यह जो कहा है, वह पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा से कहा गया है।
विशेषार्थ--गाथा में ग्रन्थकार आचार्य ने शंका का समाधान करते हुए बताया है कि पूर्वकोटि का त्रिभाग अबाधा का निर्देश असंगत नहीं है। क्योंकि जिन संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों की पूर्व कोटि प्रमाण आयु होती है और वे परभव की आयु का बंध करें तो उनकी अपेक्षा ही यह कहा गया है कि अपनी आयु के दो भाग जाने पर, तीसरे भाग के प्रारम्भ में परभव की आयु का बंध करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनकी अपनी आयु के दो भाग जायें और तीसरा भाग शेष रहे तब परभव की आयु का बंध होता है, यह पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा से कहा गया है। किन्तु इससे अधिक जिनकी आयु हो उनकी अपेक्षा इस नियम का विधान नहीं किया गया है। वे तो छह माह की आयु शेष रहने पर आगामी भव की आयु का बंध करते हैं तथा पूर्वकोटि का तीसरा भाग रूप उत्कृष्ट अबाधा भी
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