Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ बंधिनी आठ हैं। किन्तु वर्णादि को सामान्य के गिनने पर ध्र वबंधिनी प्रकृतियां सैंतालीस होती हैं।
इस प्रकार सामान्य से प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों को जानना चाहिये। अब अनन्तरोक्त शुभ प्रकृतियों से कितनी ही प्रकृतियों का विशेष निर्णय करने के लिये कतिपय शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाते हैं। उत्कृष्ट अनुभागबंध स्वामित्व
सयलासुभायवाणं उज्जोमतिरिक्खमणुयआऊणं । सन्नी करेइ मिच्छो समयं उक्कोस अणुभागं ॥६६॥ शब्दार्थ-सयलासुभ- समस्त अशुभ प्रकृतियों, आयवाणं-आतप का, उज्जोयतिरिक्स मणुयआऊणं-उद्योत, तिर्यंच और मनुष्य आयु का, सन्नीसंज्ञी जीव, करेइ-करता है, मिच्छो-मिथ्यावृष्टि, समय-समयमात्र, उक्कोस - उत्कृष्ट, अणुभाग-अनुभागबंध को ।
गाथार्थ-समस्त अशुभ प्रकृतियों, आतप, उद्योत, तिथंचायु और मनुष्यायु रूप प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबध को संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव एक समय मात्र करता है।
विशेषार्थ-गाथा में समस्त अशुभ प्रकृतियों एवं कतिपय शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ सयलासुभ' अर्था । ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नव नोकषाय, नरकत्रिक, तिर्यंचद्विक, आदि को छोड़कर शेष पांच संहनन और पांच संस्थान, एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क, स्थावरदशक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, नीचगोत्र और अन्तरायपचक रूप सभी वियासी (८२)
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