Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ बंध में हेतु हैं, असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। इसलिये स्थितिबंध के हेतुभूत अध्यवसायों से अनुभागबंध के हेतुभूत अध्यवसाय असंख्यातगुणे होते हैं।
इन अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों से अनन्त गुणे कर्मस्कंध हैं। अर्थात् किसी भी विवक्षित एक समय में एक अध्यवसाय से ग्रहण किये कर्मदलिक के परमाणु अनन्तगुणे हैं—'तत्तो कम्मपएसाणंतगुणा' । क्योंकि एक जीव द्वारा एक समय में ग्रहण किये गये कर्मदलिक की एक-एक वर्गणा में अभव्य से अनन्तगुणे परमाणु होते हैं और एक जीव एक समय में अभव्यराशि से अनन्तगुणे और सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण कर्मस्कंधों को ग्रहण करता है। अतः अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों से जिनका प्रमाण असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण बतलाया है, उनसे अनन्तगुण कर्मस्कंध स्वतः सिद्ध हो जाते हैं।
इन कर्मप्रदेशों से भी अनन्तगुणे रसच्छेद या रस से अविभागी प्रतिच्छेद, रसाणु (अनुभागाणु) हैं- 'तो रसच्छेया'। इसका कारण यह है कि अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों के द्वारा कर्मपुद्गलों में रस-अनुभागशक्ति पैदा होती है । यदि एक परमाणु में विद्यमान रस-अनुभागशक्ति को केवलज्ञान के द्वारा छेदा जाये तो उसमें समस्त जीवराशि से अनन्तगुणे अविभाग प्रतिच्छेद-रसच्छेद पाये जाते हैं और समस्त जीवराशि अनन्त है। इसीलिये कहा है कि समस्त कर्मस्कन्धों के प्रत्येक परमाणु में समस्त जीवराशि से अनन्तगुणे रसच्छेद होते हैं। इस प्रकार बंध और उनके कारणों का अल्पबहुत्व जानना चाहिये ।।
इस प्रकार से अनुभागबंध के स्वरूप का विवेचन जानना चाहिये।
१ इसी प्रकार दि. कर्म ग्रथों में भी योगस्थानादि का अल्पबहुत्व बलाया
है । देखिये दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा-५१६-५१६ ।
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