Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ विशेषार्थ-बध्यमान कर्मों को प्राप्त होने वाले दलिकों के भागविभाग के नियम का गाथा में निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
जिस प्रकार पेट में जाने के बाद भोजन रस, रुधिर आदि रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार जीव द्वारा किसी भी विवक्षित समय में एक अध्यवसाय द्वारा ग्रहण किये गये दलिक-कर्मपरमाणुओं का समूह-उसी समय उतने हिस्सों में बंट जाता है, जितने कर्मों का बंध उस समय उस जीव ने किया है। उस ग्रहीत कर्मपरमाणुओं के समूह में से जिस-जिस कर्म की स्थिति अधिक होती है, उस स्थिति की अधिकता के अनुसार अनुक्रम से उस-उस कर्मप्रकृति को अधिकअधिक दलिकभाग प्राप्त होता है। अर्थात् अधिक-अधिक स्थिति वाले कर्म का भाग अनुक्रम से विशेष-विशेष होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस कर्म की स्थिति अधिक है, उस क्रम से उसका भाग भी अधिक होता है और जिसकी स्थिति अल्प हो उसका भाग भी अल्प। ___ स्थितिबंधप्ररूपणा के प्रसंग में यह बताया जा छका है कि दूसरे समस्त कर्मों की अपेक्षा आयुकर्म की स्थिति सबके अल्प- मात्र तेतीस सागरोपम प्रमाण है । अत: आयुकर्म का भाग सबसे अल्प होता है। उससे नाम और गोत्र कर्म का विशेषाधिक है। क्योंकि उनकी स्थिति उत्कृष्ट से बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। किन्तु इन दोनों की स्थिति समान होने से उन्हें हिस्सा भी बराबर मिलता है। अर्थात् जितना भाग नामकर्म का होता है, उतना ही भाग गोत्रकर्म का है।
नाम और गोत्र की अपेक्षा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भाग विशेषाधिक है। क्योंकि इन तीनों की उत्कृष्ट स्थिति तीस-तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। अत: नाम और गोत्र से इन तीनों कर्मों को अधिक भाग प्राप्त होता है। लेकिन इन तीनों कर्मों की स्थिति समान है, अतः स्वस्थान में इनका भाग बराबरबराबर है।
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