Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६
२४५ उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही हैं, सम्यग्दृष्टि जीव नहीं।
इस विषय में और भी विशेष रूप से विचार किया जाये तो आतप का तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामी मिथ्यादृष्टि देव उत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं, अन्य कोई जीव नहीं। इसका कारण यह है कि विशुद्ध परिणाम वाले देव जिन परिणामों से आतप के उत्कृष्ट अनुभाग बंध को करते हैं, उन परिणामों में वर्तमान मनुष्य और तिर्यंच को आतप का बंध असम्भव है। क्योंकि वैसे परिणामों के होने पर एकेन्द्रिय योग्य कर्मबंध होता नहीं है और नारक तथास्वभाव से इसका बंध करते ही नहीं हैं।
उद्योतनामकर्म का सप्तम पृथ्वी में वर्तमान औपशमिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला नारक यथाप्रवृत्तादि तीन करण पूर्वक अन्तरकरण करके मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति अनुभव करते हुए उसके चरम समय में उकृष्ट अनुभागबंध करता है । क्योंकि उद्योत के बंधकों में वही अत्यन्त शुद्ध परिणाम वाला है । सातवीं पृथ्वी के नारक भवस्वभाव से तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं और तिर्यंचगतिप्रायोग्य कर्मप्रकृतियों का बंध करने पर उनके साथ उद्योतनामकर्म का बंध हो सकता है। क्योंकि ऐसे विशुद्ध परिणाम वाले आदि के छह नरक के नारक और देव मनुष्यप्रायोग्य एवं मनुष्य, तिर्यंच देवप्रायोग्य प्रकृतिबंध करते हैं । अतएव अनिवृत्तिकरण के चरम समय में वर्तमान सप्तम पृथ्वी का नारक उद्योतनामकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग का बंधाधिकारी है।। __तिर्यंचायु और मनुष्यायु का तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला मिथ्याष्टि तीन पल्योपम प्रमाण भोगभूमिज की आयु बांधने पर उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है। ___ अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, निर्माण, प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, तीर्थंकरनाम और यश:
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