Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसग्रह : ५ कुछ विशुद्ध परिणामों में वर्तमान जीव स्त्रीवेद और नपुसकवेद का जघन्य अनुभागबंध करते हैं।
विशेषार्थ-शुभ वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु, तेजस, कार्मण और निर्माण रूप शुभ ध्र वबंधिनी तथा त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक रूप त्रसचतुष्क और पराघात, पंचेन्द्रियजाति और उच्छ वास कुल मिलाकर इन पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध 'चउगइया' चारों गति में वर्तमान संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
नरकगति की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाले अतिक्लिष्ट परिणामी तिर्यंच और मनुष्य उपयुक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि नरकगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते समय भी ये प्रकृतियां बंधती हैं तथा नरकगतिप्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हुए सर्वोत्कृष्ट संक्लेश भी है। इसीलिये इन सभी पुण्य प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध होता है । तथा
ईशानस्वर्ग तक के देवों के सिवाय तीसरे से आठवें देवलोक तक के संक्लिष्ट परिणामी देव अथवा नारक तिर्यंचगति और पंचेन्द्रियजाति की उत्कृष्ट स्थितियों को बांधते हुए इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि ईशान तक के सर्वोत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान देव तो पंचेन्द्रियजाति और असनाम को छोड़कर शेष तेरह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करते हैं। सर्वसंक्लिष्ट परिणाम होने पर एकेन्द्रियजाति और स्थावरनामकर्म का बंधकरने वाले होने से उनके पंचेन्द्रियजाति और त्रसनामकर्म का बंध होना असम्भव है। तथा
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी इन पन्द्रह प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग
बंधकों के लिए इसी प्रकार बताया है । देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४७८,४७६ ।
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