Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८
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सयलसुभाणुक्कोसं एवमणुक्कोसगं च नायव्वं । वन्नाई सुभ असुभा तेणं तेयाल धुव असुभा ॥६८॥ शब्दार्थ-सयलसभाणुवकोसं-समस्त शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट, एवंइसी प्रकार, अणुक्कोसगं-अनुत्कृष्ट, च-और, नायव्वं-जानना चाहिये, वन्नाई-वर्णादि, सुभ असुभा-शुभ और अशुभ, तेणं-इस कारण, तेयालतेतालीस, धुव-ध्र वबंधिनी, असुभा-अशुभ ।
__गाथार्थ-समस्त शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामी भी इसी प्रकार जानना चाहिये। वर्णादिचतुष्क शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होने से ध्रुवबंधिनी अशुभ प्रकृतियां तेतालीस होती हैं।
विशेषार्थ-गाथा में ध्र वबंधिनी शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बंध के प्रकारों का स्वामित्व एवं अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के तेतालीस होने के कारण को स्पष्ट किया है। पहले ध्रुवबंधिनी शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबंधप्रकारों के स्वामित्व का स्पष्टीकरण करते हैं___ सातावेदनीय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, शरीरपंचक, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, अंगोपांगत्रिक, प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ - वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रसदशक, निर्माण, तीर्थंकर|म और उच्चगोत्र रूप समस्त बयालीस शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागबंध भी पूर्व में जिस प्रकार से कहा गया है, उसी प्रकार से जानना चाहिये। अर्थात उन प्रकृतियों के बंधकों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाले उत्कृष्ट अनुभागबंध और मंद परिणाम वाले अनुत्कृष्ट अनुभागबंध करते हैं। __ वर्णादिचतुष्क का शुभ और अशुभ समुदाय में ग्रहण करने के कारण अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां तेतालीस होती हैं और शुभ ध्र व
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