Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ स्थितिबंध सादि- सान्त है । उसके सिवाय शेष समस्त स्थितिबंध अजघन्य कहलाता है । वह अजघन्य स्थितिबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है, वहाँ से पतन होने पर पुनः होता है, इसलिए सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनको अनादि तथा अभव्य, भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्रुव है ।
उक्त अठारह प्रकृतियों के शेष जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबंध सादि, अध्रुव हैं । इनमें से जघन्य का विचार तो ऊपर किया जा चुका है और उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट बंध संज्ञी मिथ्यादृष्टि को एक के बाद दूसरा इस तरह बदल-बदल कर होते हैं । जिसका कारण यह है
जिस-जिस समय सर्व संक्लिष्ट परिणाम होते हैं, उस उस समय उत्कृष्ट स्थिति का बंध और मध्यम परिणाम में अनुत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है । इस प्रकार मिथ्यात्वगुणस्थान क्रमपूर्वक प्रवर्तित होने से वे दोनों सादि, अध्रुव हैं तथा उपर्युक्त अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष सभी (१०२) प्रकृतियों की जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियां सादि और सांत - अध्रुव हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिए
निद्रापंचक, मिथ्यात्व, आदि की बारह कषायें, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु, उघघात, निर्माण इन उनतीस प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध स्वयोग्य सर्वविशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव को अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है । उसके बाद उसी जीव के अध्यवसायों का परावर्तन होने से जब मंद परिणाम होते हैं तब अजघन्य स्थितिबंध होता है, पुनः कालान्तर में या अन्य भव में विशुद्ध परिणाम हों, तब जघन्य स्थितिबंध होता है । इस प्रकार बदलबदल कर होने से वे दोनों सादि, अध्रुव हैं और उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी पंचेन्द्रिय को क्रम पूर्वक होते हैं । सर्व संक्लिष्ट परिणामों के होने पर उत्कृष्ट और मध्यम परिणामों के होने पर अनुत्कृष्ट होता है। जिससे वे दोनों सादि और अध्रुव हैं ।
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