Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३
क्रम
१२
१३
प्रकृतियों के नाम
मनुष्यायु, तिचा
नरकायु
१४ | देवद्विक
१५ वैक्रियद्विक
१६ नरकद्विक
१८
१७ मनुष्यद्विक, आद्य पांच संहनन, आद्य पांच संस्थान, शुभविहायोगति, स्थिरपंचक
नियंचद्विक औदारिक शरीर, उद्योत
१६ एकेन्द्रिय,
आतप
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स्थावर
उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी
मिथ्याष्टि तत्प्रायोग् य विशुद्ध पर्याप्त मनुष्य, तिर्यंच
तत्प्रायोग्य सं. प. मिथ्यादृष्टि
संज्ञी
मनुष्य, तिर्यंच
तत्प्रायोग्य सं. पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य,
तिर्यंच
अतिसंक्लिष्ट पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच
अतिसंक्लिष्ट पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य,
तिर्यंच
तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि पर्याप्त
संज्ञी
अतिसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि नारक सहस्रारांत देव
तथा
अतिसं क्लिष्ट ईशानांत देव
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जघन्य स्थितिबंध के स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच
तत्प्रायोग्य विशुद्ध मिथ्यादृष्टि पर्याप्त असंज्ञी और संज्ञी
सर्व विशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय
२२७
सर्वविशुद्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय
पर्याप्त
पर्याप्त
तत्प्रायोग्य विशुद्ध पर्याप्त
असंज्ञी
पंचेन्द्रिय
11
विशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय
विशुद्ध पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय
11
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