Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
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शुभाशुभत्व प्ररूपणा
सव्वाण ठिई असुभा उक्कोसुक्कोससंकिलेसेणं । इयरा उ विसोहीए सूरनरतिरिआउए मोत्त ॥६४॥1
शब्दार्थ-सव्वाण-सभी प्रकृतियों की, ठिई-स्थिति, असुभा-अशुभ, उक्कोस-उत्कृष्ट, उक्कोससंकिलेसेणं-उत्कृष्ट संक्लेश से, इयरा-इतरजघन्य, उ-और, विसोहीए-विशुद्धि से, सुरनरति रिआउए-देव-मनुष्यतिर्यचायु को, मोत्तुं-छोड़कर।
गाथार्थ- देव, मनुष्य और तिर्यंच इन तीन आयु को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश से बंधने के कारण अशुभ है और इतर-जघन्य स्थिति विशुद्धि से बंधने के कारण शुभ है। विशेषार्थ-गाथा में सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के अशुभ होने के कारण को स्पष्ट किया है। ___शुभ या अशुभ समस्त कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अशुभ है'सव्वाण ठिई असुभा उक्कोस'। इसका कारण यह है कि जब उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होते हैं तब उत्कृष्ट स्थिति का बंध होता है-'उक्कोससंकिलेसेणं'। जैसे-जैसे संक्लेश की वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे स्थितिबंध में वृद्धि होती है। ___ कषाय के उदय से उत्पन्न हुए अशुभ अध्यवसायों को संक्लेश कहते हैं। अतएव संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप कारण अशुद्ध होने से तज्जन्य उत्कृष्ट स्थिति का बंध रूप कार्य भी अशुभ होता है तथा अप्रशस्त कर्म में जैसे-जैसे संक्लेश की वृद्धि होती है, वैसे रस की वृद्धि होती है । इस हेतु से भी उत्कृष्ट स्थिति अशुभ है । तथा
१ तुलना कीजिये
सवाओ वि ठिदीओ सुहासुहाणं पि होंति असुहाओ। माणुस-तिरिक्ख-देवाउगं च मोत्त ण सेसाणं ॥
-दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ४२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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