Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधविध प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२
२१६
शब्दार्थ - अट्ठाराण - अठारह प्रकृतियों का अजहनो - अजवन्य स्थिति बंध, उवसमसेढीए - उपगमश्र ेणि से, परिवडंतस्स - पतन करने वाले को, साई - सादि, सेसवियप्पा - शेष विकल्प, सुगमा - सरल हैं, धुवाणंपि- ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के भी ।
अधुवा -- अध्रुव,
गाथार्थ - अठारह प्रकृतियों का अजघन्य स्थितिबंध उपशमश्रणी से पतन करने - गिरने वाले के होने से सादि है तथा उनके शेष विकल्प एवं अध्रुव और ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के सभी विकल्प सुगम हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में ज्ञानावरणपंचक आदि अठारह प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबंध एवं शेष ध्रुव, अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य आदि स्थितिबंधों के सादि आदि विकल्पों का विचार किया गया है
'अट्ठाराणऽजहन्नो' अर्थात् ज्ञानावरणपंचक आदि अठारह प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबंध का आरम्भ उपशमश्र णि से गिरते समय होता है, जिससे वह चारों विकल्पों वाला होता है । जो इस प्रकार जानना चाहिए - उपशमश्र णि से गिरने पर सादि उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया, उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव है ।
,
इन्हीं अठारह प्रकृतियों के शेष जघन्यादि विकल्प तथा इन अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष ध्रुवबंधिनी एवं अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्यादि चारों विकल्प सादि एवं अध्रुव हैं । जिनका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग पूर्व में किया जा चुका है ।
इस प्रकार से मूल एवं उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये | अब इसी का विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं ।
१ दिगम्बर कर्म साहित्य में भी मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा की है। देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गा.
४२०-४२३।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.