Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है और उससे ऊपर के स्थितिस्थान विशेषाधिक-विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं'विसेसअहिएहिं उवरवरि'। यानी आयुकर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मों की जो जघन्य स्थिति है, वह त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है, उसके बाद की दूसरी स्थिति विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधती है, उसके बाद की तीसरी स्थिति पूर्व से भी विशेषाधिक अध्यवसायों द्वारा बंधती है । इस प्रकार उत्तर-उत्तर यावत् उत्कृष्ट स्थिति तक के प्रत्येक स्थान पूर्व-पूर्व से अधिक अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं।
ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की स्थिति के बंध के लिए तो उक्त प्रकार से समझना चाहिये और आयुकर्म के लिये यह जानना कि आयुकर्म की जघन्यस्थिति भिन्न-भिन्न अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्यलोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों द्वारा बंधती है। समयाधिक दूसरी स्थिति पूर्व से असंख्यातगुणे अध्यवसायों द्वारा, दूसरी से तीसरी स्थिति उससे भी असंख्यातगुणे अध्यवसायों द्वारा बंधती है । इस प्रकार पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर के स्थितिस्थान असंख्यातगुणे अध्यवसायों द्वारा बंधते हैं। इस प्रकार से तब तक कहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। अब इसी का कुछ विशेष स्पष्टीकरण के साथ विचार करते हैंअसंख लोगखपएसतुल्लया हीणमज्झिमुक्कोसा । ठिईबंधज्झवसाया तीए विसेसा असंखेज्जा ॥५८।।
शब्दार्थ-अरुख लोगरूपएसतुल्लया-असंख्य लोकाकाश प्रदेश तुल्यप्रमाण, हीणज्झिमुक्कोसा-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट, ठिइबंधज्झवसायास्थितिबंध के अध्यवसाय, तोए- उनके, विसेसा-विशेष, असंखेज्जाअसंख्याता ।
गाथार्थ- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थितिबंध के हेतु
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