Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४-५५
१६७
बंध होता है और इस तरह अबाधा का समय और स्थितिबंध का पत्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण कंडक कम करते हुए वहाँ तक कहना चाहिये कि जघन्य अबाधा में वर्तमान जीव जघन्य स्थितिबंध करे ।
उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि जीव अनेक हैं। कोई उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं, कोई एक समय न्यून, कोई दो समय न्यून यावत् कोई पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून और कोई उससे भी न्यून बांधते हैं । इनके अबाधाकाल का नियम यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध करे तब उत्कृष्ट अबाधा, समय न्यून करे तब भी उत्कृष्ट अबाधा, दो समय न्यून करे तब भी उत्कृष्ट अबाधा, यावत् जहाँ तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून बंध न करे वहाँ तक उत्कृष्ट अबाधा होती है और पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून बंध करे तब समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा होती है । वह वहाँ तक कि दूसरी बार पल्योपम का असंख्यातवां भाग बंध में से कम न हो। दूसरी बार पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है तब दो समय न्यून उत्कृष्ट अबाधा होती है । इस प्रकार प्रत्येक पल्योपम के असंख्यातवें भाग में अबाधा का एक-एक समय न्यून करने पर एक ओर जघन्य स्थितिबंध और दूसरी ओर जघन्य अबाधा का प्रमाण आता है ।
इस प्रकार से अबाधा के समय की हानि करने के द्वारा स्थिति के कंडक की हानि को जानना चाहिये । अब एकेन्द्रियादि के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रमाण का विचार करते हैं । एकेन्द्रियादि का जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध
जा एगिंदि जहन्ना पल्लासंखंस संज्या सा उ । तेसि जेट्ठा सेसाणसखंभागहिय जासन्नी ॥ ५४ ॥ पणवीस पन्नास सय दससय ताडिया इगिदिठिई । विगला सन्नीण कमा जायइ जेट्ठा व इयरा वा ॥ ५५ ॥
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org