Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
अन्तःकोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवें भाग से लेकर कुछ न्यून दो पूर्व कोडी अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण एवं आहारकद्विक की पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण है।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि तीर्थकरनाम और आहारकद्विक की अंतःकोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवें भाग की स्थिति से लेकर निकाचित करना प्रारम्भ करे और जब पूर्ण रूप से गाढ़ निकाचित हो जाये तब तीर्थंकरनाम की उकृष्ट स्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम होती है । जो इस प्रकार समझना चाहिये
जिस भव में तीर्थंकर होना है उस भव से तीसरे भव में पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला कोई मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म को निकाचित करे, वहाँ से तेतीस सागरोपम की आयु वाला अनुत्तर विमानवासी देव हो और वहाँ से च्यवकर चौरासी लाख पूर्व की आयु वाला तीर्थकर हो । इस प्रकार पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला निकाचित बंध करे और वहाँ से अनुत्तर विमान में उत्कृष्ट आयु से उत्पन्न हो और उत्कृष्ट आयु से तीर्थकर हो तो ऊपर कहे अनुसार निकाचित तीर्थंकरनामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है। और आहारकद्विक की अन्तःकोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवें भाग से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति गाढ़ निकाचित होती है । इस तरह इन दोनों प्रकृतियों
तीर्थंकरनाम की उपर्युक्त गाढ़ निकाचित उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य की अपेक्षा से जानना चाहिए। जो तेतीस सागरोपम की आयु से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होकर फिर वहाँ से च्यवकर चौरासी लाख पूर्व की आयु से तीर्थंकर हो। यदि पूर्वकोटि वर्ष से कम आयु वाला बांधे और कम आयु वाले वैमानिक देवों या नारकों में उत्पन्न हो
और तीर्थंकरभव में कम आयु हो तो उपयुक्त स्थिति से कम भी गाढ़ निकाचित स्थिति सम्भव है। यहाँ तीर्थंकरनाम तथा आहारक शरीर आहारक-अंगोपांग को आहारक
द्विक नाम से एक प्रकृति रूप में गिनकर 'दोनों' शब्द का प्रयोग किया है। Jain Education International
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