Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८
१८३
वस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ् - वास, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, हारिद्र, लोहित, नील, कृष्णवर्ण, दुरभिगंध, कषाय, अम्ल, कटुक और तिक्तरस, गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीतस्पर्श, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, निर्माण, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, हुंडकसंस्थान, सेवार्तसंहनन, तैजस, कार्मण, नीचगोत्र, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुसकवेद और स्थावर, इन अड़तालीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध बोस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देकर समान संख्या वाले शून्यों को काटने के बाद २/७ सागरोपम प्रमाण इन अड़तालीस प्रकृतियों की जघन्य स्थिति जानना चाहिये।
यद्यपि हारिद्र और रक्तवर्णादि की उत्कृष्ट स्थिति साडे बारह कोडाकोडो सागरोपम प्रमाण है। उस में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर कुछ अधिक ६/३५ सागरोपम जघन्य स्थिति प्राप्त होती है । परन्तु प्राचीन शास्त्रों में वर्णादि प्रत्येक भेद की २/७ सागरोपम प्रमाण ही जघन्य स्थिति बतलाई है। इसलिए यहाँ भी हारिद्र आदि वर्णादि की उतनी ही जघन्यस्थिति बतलाई है।
इस प्रकार निद्रापंचक से लेकर सभी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रमाण मतान्तर की अपेक्षा से ग्रन्थकार आचार्य ने बताया है। क्योंकि कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में दूसरे प्रकार से भी जघन्य स्थितिबंध का निर्देश किया है । संक्षेप में जो इस प्रकार है
कर्मप्रकृति में निद्रापंचक आदि की जघन्य स्थिति का प्रमाण बतलाने के लिये निम्नलिखित गाथासूत्र कहा है
वगुक्क सठिईणं, मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्धं । सेसाणं तु जहन्नो, पल्लासंखेज्जागेणू णो ।।
-कर्मप्रकृति, बंधनकरण ७९
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