Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६
उत्तर-छियालीस का उदयस्थान इसलिए कहा है-मिथ्यादृष्टि के सात का उदय अनन्तानुबंधी का उदय न हो तब मात्र एक आवलिका तक पर्याप्त-अवस्था में होता है और नामकर्म की इक्कीस प्रकृतियों का उदय तो विग्रहगति में होता है । कोई भी मिथ्या दृष्टि अनन्तानुबंधी के बिना मरण को प्राप्त करता नहीं जिससे विग्रहगति में अनन्तानुबंधी के उदय से रहित कोई भी जीव होता नहीं है। जिससे विग्रहगति में छि सालोस आदि प्रकृतियों का हो उदयस्थान होता है तथा उस मिथ्यादृष्टि के अन्तिम उनसठ प्रकृतियों का उदयस्थान मोहनीय की दस प्रकृतियां उदय में हों तब होता है । वे उनसठ प्रकृतियां इस प्रकार हैं
अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि में से कोई भी क्रोधादि चार, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल, भय, जुगुप्सा और मिथ्यात्व ये मोहनीय की दस प्रकृतियां, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण,
औदारिकद्विक, कोई एक संहनन, कोई एक संस्थान, प्रत्येक, उपघात, पराघात, कोई एक विहायोगति, दो स्वर में से कोई एक स्वर, उच्छवास और उद्योत इस प्रकार नामकर्म की इकतीस प्रकृतियां, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क, पांच निद्राओं में से कोई एक निद्रा, एक वेदनीय, एक आयु और एक गोत्र, इस प्रकार अधिक से अधिक उनसठ प्रकृतियां उदय में होती हैं।
इन उदयस्थानों में सासादन, मिश्र और देशविरति सम्बन्धी कितने ही उदयस्थान भिन्न-भिन्न रीति से भी सम्भव हैं। जिनका आगे सप्ततिकासंग्रह में विस्तार से विचार किया जा रहा है। यहाँ तो प्रासंगिक होने से उक्त संख्या वाले उदयस्थानों की सम्भावना मात्र बतलाई है।
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