Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
में, मणुयतिगुच्चं - मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र, च और गईतसंमि -- गतित्रसों में तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में, तिरि- तिर्यंचों में, तित्य आहारतीर्थंकर आहारकद्विक ।
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गाथार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के नरकत्रिक, देवत्रिक और वैक्रियद्विक, गतित्रसों में मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र तथा तीर्थंकर एवं आहारकद्विक सभी तिर्यंचों के बंध में नहीं होते हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में तिर्यंचगति की बंध के अयोग्य प्रकृतियों को बतलाया है। लेकिन एकेन्द्रिय आदि जातियों, पृथ्वी आदि काय भेदों की अपेक्षा तिर्यंचों के अनेक भेद हैं। इसलिए सामान्य और विशेषापेक्षा उन अयोग्य प्रकृतियों का निर्देश करते हुए कहा है
नरकत्रिक - नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु, देवत्रिक - देवगति देवानुपूर्वी और देवायु तथा वैक्रियद्विक - वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग ' इन आठ प्रकृतियों का 'इगिविगलाणं नो बंधे' एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय जीव बंध नहीं करते हैं ।
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' मणुर्यातिगुच्चे च गईत संमि' अर्थात् मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु रूप मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र ये चार तथा पूर्व में बतलाई गई आठ कुल बारह प्रकृतियों का गतित्रस - तेजस्काय और वायुकाय के जीव बंध नहीं करते हैं । तथा
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'तिरि तित्थ आहार' - अर्थात् तथाभवस्वभाव से सभी तिर्यंच तीर्थंकरनाम और आहारद्विक- आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं ।
उक्त समस्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि तीर्थंकरनाम और आहारafar बिना सामान्य से शेष एक सौ सत्रह प्रकृतियां तिर्यंचगति
इन आठ प्रकृतियों को वैक्रयाष्टक भी कहते हैं ।
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