Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
शब्दार्थ - वेउव्वाहारदुगं - वैक्रियद्विक और आहारकद्विक, नारयसुरसुहुमविगलजाइतिगं - नरकत्रिक, देवत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, विकलजातित्रिक, बंधहिबांधते हैं, न नहीं, सुरा - देव, सायवथावर एगिंदि - आतप, स्थावर और एकेन्द्रिय जाति सहित, नेरइया - नारक ।
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गाथार्थ - वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, नरकत्रिक, देवत्रिक, सूक्ष्मत्रिक और विकलजातित्रिक इन सोलह प्रकृतियों को देव नहीं बांधते हैं तथा पूर्वोक्त सोलह और आतप, स्थावर और एकेन्द्रियजाति सहित कुल उन्नीस प्रकृतियों का नारक बंध नहीं करते हैं ।
विशेषार्थ - देवों और नारकों के बंध - अयोग्य प्रकृतियों का गाथा में उल्लेख किया है। इस उल्लेख में कुछ एक प्रकृतियां तो देवों और नारकों में समान रूप से बंध के अयोग्य हैं और कुछ ऐसी हैं जो नारकों के बंध के अयोग्य होने पर भी देवों के बंधयोग्य हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
वैक्रियशरीर और वैक्रिय - अंगोपांग रूप वैक्रियद्विक, आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग रूप आहारकद्विक तथा त्रिक शब्द का प्रत्येक के साथ योग होने से नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु रूप नरकत्रिक, देवगति, देवानुपूर्वी और देवायुरूप देवत्रिक, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त रूप सूक्ष्मत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप विकलेन्द्रियजातित्रिक, इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह प्रकृतियों का भवस्वभाव से सभी देव बंध नहीं करते है । अतएव देव इन सोलह से शेष एक सौ चार प्रकृतियों के बंधाधिकारी हैं। सामान्य से एक सौ चार प्रकृतियां बंधयोग्य हैं । तथा
आतप, स्थावर और एकेन्द्रियजाति के साथ पूर्वोक्त सोलह प्रकृ- तियों को अर्थात् कुल उन्नीस प्रकृतियों को भवस्वभाव से कोई भी
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