Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
१६३
बात यह है कि पूर्व में सात कर्मों की जो स्थिति बतलाई है, उसमें उनका अबाधाकाल भी सम्मिलित है। जैसे कि मिथ्यात्वमोहनीय की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है और उसका सात हजार दर्ष अबाधाकाल बतलाया है, तो ये सात हजार वर्ष उस सत्तर कोडाकोडी सागरोपम में सम्मिलित हैं। अतः यदि मिथ्यात्व की अबाधारहित स्थिति (अनुभवयोग्या स्थिति) जानना हो तो सत्तर कोडाकोडी सागरोपम में से सात हजार वर्ष कम कर देना चाहिये । किन्तु आयुकर्म की तेतीस सागरोपम, तीन पल्योपम आदि जो स्थिति बतलाई है, वह शुद्ध स्थिति है। उसमें अबाधाकाल सम्मिलित नहीं है। क्योंकि अन्य कर्मों की तरह आयुकर्म की अबाधा अनुपात पर आधारित नहीं है
और अनुपात पर अवलम्बित न होने का कारण यह है कि आयु के त्रिभाग में भी आयु का बंध अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि विभाग के भी त्रिभाग करते-करते आठ त्रिभाग पड़ते हैं। इस प्रकार से तीसरे भाग में, नौवे भाग में, सत्ताईसवें भाग में परभव की आयु का बंध हो सकता है और कदाचित् इस सत्ताईसवें भाग में भी परभव की आयु का बंध न हो तो मरण से अन्तमुहर्त पहले अवश्य बंध हो जाता है । इसी अनिश्चितता के कारण आयुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल सम्मिलित नहीं किया जाता है। ___आयुकर्म की स्थिति के साथ उसकी अबाधा को न जोड़ने का तीसरा कारण यह है कि अन्य कर्म अपने स्वजातीय कर्मों को अपने बंध द्वारा पुष्ट करते हैं और यदि उनका उदय भी हो तो उसी जाति के बंधे हुए नवीन कर्म का बंधावलिका के बीतने के पश्चात् उदीरणा द्वारा उदय भी होता है। परन्तु आयुकर्म के लिए ऐसा नहीं है । बध्यमान आयु भुज्यमान आयु के एक भी स्थान को पुष्ट नहीं करती है । जैसे कि मनुष्यायु को भोगते हुए स्वजातीय मनुष्यायु का बंध भी हो तो बध्यमान उस आयु को अन्य मनुष्य जन्म में जाकर ही भोगा जाता है, यहाँ उसके एक भी दलिक का उदय या उदीरणा नहीं होती है । इसी कारण आयु के साथ अबाधाकाल को नहीं जोड़ा जाता है।
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