Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
१५७
रोपम की है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल एवं अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है।
इस प्रकार से अभी तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की सभी उत्तरप्रकृतियों एवं कुछ एक मोहनीय और नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई जा चुकी है। अब आगे की गाथा में मुख्य रूप से नामकर्म को उत्तरप्रकृतियों की
और साथ में मोहनीयकर्म में से सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं
संघयणे संठाणे पढमे दस उवरिमेसु दुगुवुड्ढी । सुहमतिवामण विगले ठारस चत्ता कसायाणं ॥३५॥ शब्दार्थ-संघयणे-संहनन में, संठाणे-संस्थान में, पढमे-पहले, दस-दस कोडाकोडी, उवरिमेसु-ऊपर के संहनन और संस्थानों में, दुगुवुड्ढी
-दो-दो की वृद्धि. सुहुमति-सूक्ष्म त्रिक, वामण-वामनसंस्थान, बिगलेविकलत्रिक की, ठारस-अठारह कोडाकोडी सागरोपम, चत्ता-चालीस, वसायाणं-कषायों की।
गाथार्थ-संहननों और संस्थानों में से पहले संहनन और सस्थान की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है और इसके बाद ऊपर-ऊपर के एक संहनन और संस्थान में दो-दो कोडाकोडी सागरोपम की वृद्धि करना चाहिए । सूक्ष्मत्रिक, वामनसंस्थान और विकलत्रिक की अठारह कोडाकोडी सागरोपम तथा कषायों की चालीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है।
विशेषार्थ-प्रथम संहनन-वज्रऋषभनाराच और प्रथम संस्थानसमचतुरस्र इन दोनों की उत्कृष्ट स्थिति दस-दस कोडाकोडी सागरोपम की है, एक हजार वर्ष का अबाधकाल एवं अबाधाकाल से हीन शेष दलिक
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