Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि ->
-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१
१४६
यह स्थिति इतनी अधिक है कि संख्याप्रमाण के द्वारा बताना अशक्य होने के कारण उपमाप्रमाण के द्वारा बतलाया है । सागरोपम यह उपमा प्रमाण का एक भेद है और एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्त महाराशि को एक कोडाकोडी कहते हैं । इन कोडाकोडी सागरोपमों में कर्मों की जो उत्कृष्ट स्थिति बताई है, उनमें आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति सागरों में, किन्तु शेष सात कर्मों की स्थिति कोडाकोडी सागरोपम में है । कर्मों की इस सुदीर्घ स्थिति से यह स्पष्ट है कि एक भव का बांधा हुआ कर्म अनेक भवों तक बना रह सकता है ।
बंध हो जाने पर जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ संबद्ध रहता है, वह उसका स्थितिकाल कहलाता है और बंधने वाले कर्मों में इस स्थितिकाल की मर्यादा के पड़ने को स्थितिबंध कहते हैं । यह स्थिति दो प्रकार की है - पहली कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति अर्थात् बंधने के बाद जब तक कर्म आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल का प्रमाण और दूसरी अनुभवयोग्या स्थिति अर्थात् जितने काल तक उसका वेदन होता है, उतने समय का प्रमाण । कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में उसका अबाधाकाल भी गर्भित रहता है और अनुभवयोग्या स्थिति अबाधाकाल से रहित होती है। यहाँ जो स्थिति का उत्कृष्ट प्रमाण बतलाया है और आगे जघन्य प्रमाण कहा जा रहा है, वह कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति का समझना चाहिये । परन्तु आयुकर्म की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति का प्रमाण अनुभवयोग्या स्थिति का ही जानना चाहिये ।
यदि कर्मों की अनुभवयोग्या स्थिति जानना हो तो कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में से अबाधाकाल कम कर लेना चाहिए । आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का अबाधाकाल जानने के लिये यह नियम है कि जिस कर्म
सागरोपम का स्वरूप परिशिष्ट में
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