Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३०
१४७
नारक बंध नहीं करते हैं । इसलिए वे सामान्य से एक सौ एक प्रकृतियों के बंधाधिकारी हैं।
पूर्वोक्त प्रकार से तिर्यंच, देव और नारकों के बंध-अयोग्य प्रकृतियों को बतलाने का फलितार्थ यह हुआ कि बंधयोग्य सभी एक सौ बीस प्रकृतियों के बंधाधिकारी मनुष्य हैं ।
इस प्रकार से प्रकृतिबंध सम्बन्धी विवेचन है। स्थितिबंध
अब क्रमप्राप्त स्थितिबंध का विचार प्रारम्भ करते हैं। इसके ग्यारह अनुयोगद्वार हैं-१ स्थितिप्रमाणप्ररूपणा, २ निषेकप्ररूपणा, ३ अबाधाकंडकप्ररूपणा, ४ एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्य स्थितिबंध-प्रमाणप्ररूपणा, ५ स्थितिस्थानप्ररूपणा, ६ संक्लेशस्थानप्ररूपणा, ७ विशुद्धिस्थानप्ररूपणा, ८ अध्यवसाय'स्थानप्रमाणप्ररूपणा, ६ साद्यादिप्ररूपणा, १० स्वामित्वप्ररूपणा
और ११ शुभाशुभत्वप्ररूपणा । स्थितिप्रमाणप्ररूपणा
उक्त ग्यारह अनुयोगद्वारों में से पहले स्थितिप्रमाणप्ररूपणा करते हैं। स्थितिप्रमाणप्ररूपणा यानी प्रत्येक मूल और उत्तर प्रकृतियों की कम से कम और अधिक से अधिक स्थिति के बंध होने का विचार
१ दिगम्बर कर्मग्रन्थों में इसी प्रकार सामान्य से देवगति और नरकगति में
क्रमश: १०४ और १०१ प्रकृतियां बंधयोग्य बताई हैं। देखिये दि. पंच
संग्रह शतक अधिकार गाया ३२६, ३२७, ३४३, ३४४ । ^२ सामान्य से किस-किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है और
कौन-कौन से जीव कितनी कितनी प्रकृतियों के बंधक हैं, इसका विस्तार से ज्ञान करने के लिये ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित दूसरे, तीसरे कर्मग्रन्थ
देखिये । यहाँ तो दिग्दर्शन मात्र कराया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org