Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
१४३
उन उन गुणस्थानों को प्राप्त कर भविष्य में बंध का नाश करेंगे अतः उनकी अपेक्षा सांत अध्र ुव बंध जानना चाहिए ।
उक्त ध्रुवबंधिनी सैंतालीस प्रकृतियों के अलावा शेष रही तिहत्तर अवबंधिनी प्रकृतियों का बंध उनके अध्रुवबंधिनी होने से ही सादि,
अवसांत समझ लेना चाहिए ।
इस प्रकार प्रकृतिबंधापेक्षा सामान्य एवं विशेष से मूल और उत्तर प्रकृतियों की सादि आदि प्ररूपणा जानना चाहिए ।
स्वामित्व - प्ररूपणा
अब स्वामित्व का विचार करते हैं कि कौनसा जीव कितनी प्रकृतिय के बंध का अधिकारी है । उनमें भी जो प्रकृतियां जिन जीबों के बंध के अयोग्य है, उन प्रकृतियों के बंध के वे जीव स्वामी नहीं हैं, ऐसा कहा जाये तो इसका अर्थ यह होगा कि उनके सिवाय शेष रही दूसरी - प्रकृतियों के बंध के वे स्वामी हैं और चारों गतियों में ऐसी बंध के अयोग्य प्रकृतियां अल्प होती हैं, इसलिए ग्रन्थलाघव एवं संक्षेप में सरलता से बोध करने के लिए जो प्रकृतियां जिन जीवों के बंध के अयोग्य हैं, उनका प्रतिपादन करते हैं। उनमें भी सर्वप्रथम तिर्यंचों के बंधअयोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं ।
तिर्यंचगति की बंध - अयोग्य प्रकृतियां
नरयतिगं देवतिगं इगिविगलाणं विउव्वि नो बंधे । मणुयतिगुच्चं च गईत संमि तिरि तित्थ आहारं ॥ २६ ॥
--
शब्दार्थ - नरयतिगं - नरकत्रिक, देवतिगं - देवत्रिक, इविविगलाणंएकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के, विउब्धि - वैक्रियद्विक, नो-नहीं, बंधे - बंध
१ अध्रुवबंधिनी तिहत्तर प्रकृतियों के नाम तीसरे बंधव्यप्ररूपणा अधिकार में देखिये |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org