Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२
१२५ सौ चालीस, एक सौ इकतालीस, एक चवालीस और एक सौ पैंतालीस प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं।
इस प्रकार मोहनीय की बाईस आदि प्रकृतियों के प्रक्षेप द्वारा होने वाले एक सौ चौंतीस आदि सत्तास्थानों से प्रारम्भ कर एक एक सौ पैंतालीस प्रकृतिक तक के सत्तास्थान अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होते हैं।1 __ऊपर जो एक सौ पैंतालीस का सत्तास्थान कहा है, वही परभव की आयु का बंध होते समय एक सौ छियालीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है।
जब तेजस्कायिक और वायुकायिक भव में वर्तमान जीव के नामकर्म की अठहत्तर प्रकृति और नीचगोत्र की सत्ता हो तब ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय की छब्बीस, अन्तरायपंचक, तिर्यंचायु, नामकर्म की अठहत्तर और नीचगोत्र, इस प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। वही जब परभव संबन्धी तिर्यंचायु का बंध करे तब एक सौ अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता
१ यहाँ जो भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा चौथे से सातवें गुणस्थान तक एक
सौ चौंतीस से एक सौ पैंतालीस तक के सत्तास्थान बतलाते हैं, वे कर्मप्रकृति सत्ताधिकार गा० १३ और उसकी टीका में उल्लिखित अन्य आचार्यों के मत की अपेक्षा हैं। क्योंकि उनके मत से पहले दर्शनत्रिक का और उसके बाद अनन्तानुबंधिचतुष्क का क्षय करता है। इस मत के अनुसार विचार किया जाये तो मिथ्यात्व का क्षय होने के बाद मोहनीय की सत्ताईस प्रकृतियों की और मिश्र का क्षय होने के बाद छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता चौथे से सातवें गुणस्थान तक सम्भव है। विद्वज्जन समा.
धान करने की कृपा करें। Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org