Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ है। तथा वनस्पतिकाय के जीवों में स्थिति का क्षय होने से जब देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क इन आठों प्रकृतियों की सत्ता का नाश और नामकर्म की अस्सी प्रकृतियों की सत्ता हो तब वेदनीयद्विक, गोत्रद्विक, अनुभूयमान तिर्यंचायु, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मोहनीय छब्बीस और अन्तराय-पंचक इस प्रकार एक सौ तीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है और परभव की आयु का बंध करे तब एक सौ इकतीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस प्रकार सत्तास्थानों का विचार करने पर एक सौ बत्तीस का सत्तास्थान संभव नहीं होने से ग्रन्थकार आचार्य ने उसका निषेध किया है कि-'बत्तीसं नत्थि सयं'–अर्थात् एक सौ बत्तीस प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है।
यद्यपि सत्तानवै आदि प्रकृतिक सत्तास्थान उक्त प्रकार से अन्य-अन्य उनके योग्य प्रकृतियों का प्रक्षेप करने से दूसरी तरह से भी बन सकते है, लेकिन उनमें संख्या तुल्य होने से एक की ही विवक्षा की है। इस प्रकार एक ही सत्तास्थान भी दूसरी-दूसरी रीति से हो सकता है, किन्तु उससे सत्तास्थानों की संख्या में वृद्धि नहीं होती है, अन्तर नहीं आता है। इसीलिए अड़तालीस ही सत्तास्थान होते हैं, कम-बढ़ नहीं होते हैं। ___ इन सत्तास्थानों में समस्त कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विच्छेद होने के बाद पुनः उनकी सत्ता प्राप्त नहीं होने में अवक्तव्यसत्कर्म घटित नहीं होता है तथा अवस्थितसत्कर्मस्थान चवलीस हैं। क्योंकि ग्यारह
१ यहाँ प्रश्न होता है कि तेज और वायु काय में वर्तमान एक सौ सत्ताईस
की सत्ता वाले जीव को परभव सम्बन्धी तिर्यंचायु का बंध होने पर एक सौ अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, ऐसा कहा है। यद्यपि ये जीव तिर्यंचायु के सिवाय अन्य आयु का बंध नहीं करते हैं, यह ठीक है, किन्तु एक सौ सत्ताईस में पहले से ही तिर्यंचायु की सत्ता होने पर भी पुनः तिर्यंचायु लेकर एक सौ अट्ठाईस की सत्ता कैसे की जा सकता है ? विद्वज्जनों से समाधान की अपेक्षा है।
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