Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२
१२६ अनन्तानुबंधिविसंयोजक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ज्ञानावरण. पंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय चौबीस, आयु एक, नाम अठासी, गोत्रद्विक और अन्तरायपंचक, इस प्रकार एक सौ छत्तीस प्रकृतियों का सत्तास्थान होता है। तीर्थकरनाम का बांध होने पर एक सौ सैंतीस का, आयु के बंध में एक सौ अड़तीस का तथा एक सौ छत्तीस की सत्तावाले के आहारकचतुष्क का बंध होने पर एक सौ चालीस का, तीर्थकरनाम का बंध होने पर एक सौ इकतालीस का और देवायु का बंध होने पर एक सौ बयालीस का सत्तास्थान होता है । इस प्रकार यह १३७, १३८, १४०, १४१, १४२ प्रकृतिक पांच सत्तास्थान भूयस्कार रूप में प्राप्त होते हैं । इनमें से अन्तिम सत्तास्थान भूयस्कार रूप में लें। क्योंकि कि शेष समसंख्या वाले होने से ग्रहण नहीं किये हैं । इस प्रकार भूयस्कारों का विधान जानना चाहिये।
आचार्य मलयगिरिसूरि ने अपनी टीका एवं स्वोपज्ञवृति में सत्रह भूयस्कारों के उल्लेख में एक सौ तेतालीस प्रकृतिक सत्तास्थान का भी ग्रहण किया है। लेकिन पूर्वोक्त प्रकार से विचार करने पर सोलह भूयस्कार सम्भव हैं। एक सौ तेतालीस प्रकृतिक भूयस्कार नहीं बनता है। क्योंकि यदि आहारकचतुष्क की उद्वलना के पल्योपम का असंख्यातवां भाग बड़ा हो और मिश्रमोहनीय की उद्वलना के पल्योपम का असंख्यातवां भाग छोटा हो, जिससे मिश्रमोहनीय की उद्वलना होने के बाद भी आहारकचतुष्क की सत्ता रहती हो तो ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, वेदनीयद्विक, मोहनीय सत्ताईस, आयु एक, नाम बानवै, गोत्रद्विक और अन्तरायपंचक इस तरह एक सौ तेतालीस प्रकृतिक सत्तास्थान सम्भव है। किन्तु वह भूयस्कार रूप तो सम्भव नहीं होगा। क्योंकि मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों के साथ एक सौ चवालीस प्रकृतियों की सत्ता वाला सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना करके एक सौ तेतालीस के सत्तास्थान में जाता है, जिससे वह अल्पतर रूप में घटित हो सकता है, भूयस्कार रूप में नहीं । इसका कारण बहुश्रु त स्पष्ट करने की कृपा करें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org