Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ ही है। इसीलिए जो बंध सादि हो वह अवश्य सांत-अध्र व होता है तथा ऐसा भी होता है कि जिस बंध का अंत हो जाये पुनः उसके बंध का प्रारम्भ नहीं होता है। जैसे कि वेदनीयकर्म के बंध का विच्छेद होने के बाद पुनः उसका बंध नहीं होता है और किसी कर्म के बंध का विच्छेद हो जाने के बाद पुनः उसके बंध की शुरूआत भी होती है। जैसे कि ज्ञानावरणकर्म के बंध का विच्छेद हो जाने के बाद पतन होने पर पुन: उसके बंध की शुरूआत होती है। इसीलिए यह कहा गया है है कि 'अधुवो अधुवो व साई वा'-अर्थात् जो बंध अध्रुव हो वह अध्र व रूप ही रहता है एवं उस बंध की आदि भी होती है।
इस प्रकार से सादि आदि बंध के भेदों में जिसके सद्भाव में जो अवश्य होता है अथवा जिसके सद्भाव में जो नहीं होता है, यह स्पष्ट किया।
ये सादि आदि भी जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट के भेद से चार भेद वाले हैं। उनमें से अजघन्य और अनुत्कृष्ट एक जैसे दिखते हैं, अतः अब तद्गत विशेष को स्पष्ट करके उन दोनों में अन्तर बतलाते हैं। अजघन्य और अनुत्कृष्ट में अन्तर-भेद
उक्कोसा परिवडिए साइ अणुक्कोसओ जहन्नाओ। अब्बंधाओ वियरो तदभावे दो वि अविसेसा ॥२४॥ शब्दार्थ-उक्कोसा-उत्कृष्ट से, परिवडिए-पतन होने पर, साइसादि, अणुक्कोसओ-अनुत्कृष्ट, जहन्नाओ-जघन्य, अब्बंधाओ-अबंधक होकर, वियरो-अथवा इतर अर्थात् पुनः बंध करने पर, तदभावे-उसके अभाव में, दो वि-दोनों ही, अविसेसा-अविशेष, समान ।
गाथार्थ-उत्कृष्ट से पतन होने पर अनुत्कृष्ट और जघन्य से पतन होने पर अथवा अबंधक होकर पुनः बंध करने पर
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