Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह ५
नामकर्म की समस्त प्रकृतियां तेरानव हैं। जब ये प्रकृतियां सत्ता में हैं तब तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता न हो तब बानवे प्रकृतिक, तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता हो किन्तु आहारकद्विक आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग - आहारकबंधन और आहारकसंघात इन चार प्रकृतियों की सत्ता न हो तब नवासी प्रकृतिक और तीर्थंकर नामकर्म की भी सत्ता न हो तब अठासी प्रकृतिक स्थान होता है । इन चार सत्तास्थानों की प्रथम यह संज्ञा है, यानी ये प्रथम सत्तास्थानचतुष्क कहलाते हैं ।
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उक्त चार सत्तास्थानों में से नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क होता है। जो अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतियों की संख्या वाला है । यह द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क कहलाता हैं ।
प्रथम सत्तास्थानचतुष्क सम्बन्धी अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से देवद्विक अथवा नरकद्विक की उद्वलना करने पर छियासी प्रकृतिक,
९३ प्रकृतिक सत्त्वस्थान में नामकर्म को सब प्रकृतियों की सत्ता स्वीकार की है । तीर्थंकरनाम को कम कर देने पर ह२ प्रकृतिक और ९३ में से आहारकद्विक को कम करने पर ६१ प्रकृतिक तथा तीर्थकर, आहारकद्विक को कम करने पर ६० प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । ६० प्रकृतिक स्थान से देवद्विक की उवलना होने पर ८८ प्रकृतिक, इसमें से नारकचतुष्क की उवलना होने पर ८४ प्रकृतिक, इसमें से मनुष्यद्विक की उवलना होने पर ८२ प्रकृतिक सत्वस्थान होता है । क्षपक अनिवृत्तिकरण के ९३ प्रकृतियों में से नरकद्विक आदि तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर ८० प्रकृतिक और ह२ में से उक्त तेरह प्रकृतियों के कम करने पर ७६ प्रकृतिक और उक्त तेरह को ६१ में से घटाने पर ७८ प्रकृतिक, २० में से उक्त तेरह प्रकृतियों को घटाने पर ७७ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तीर्थंकर अयोगिकेवली के १० प्रकृतिक और सामान्य केवली के ६ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।
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