Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१, २२
१२१ शरीर, तैजसबंधन, कार्मणबंधन, तैजससंघातन, कार्मणसंघातन, संस्थानषट्क, संहननषटक, वर्णादिबीस, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, विहायोगति द्विक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, दुर्भग, अयशःकीर्ति, अनादेय, निर्माण, प्रत्येक, अपर्याप्त, मनुष्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और अन्यतर वेदनीय ये उनहत्तर प्रकृतियां हैं। इनमें पूर्वोक्त मनुष्यायु आदि बारह प्रकृतियों में से तीर्थंकर रहित ग्यारह प्रकृतियों को मिलाने पर अस्सी प्रकृतियां होती हैं। यही अस्सी तीर्थंकरनाम सहित इक्यासी, आहारकचतुष्क सहित चौरासी तथा तीर्थंकर और आहारकचतुष्क को युगपत् मिलाने पर पचासी प्रकृतियां होती हैं।
इन चार सत्तास्थानों में से अस्सी और चौरासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान सामान्य केवली के और इक्यासी एवं पचासी प्रकृतिक ये सत्तास्थान तीर्थंकर केवली के होते हैं। तीर्थंकर और अतीर्थकर ये दोनों एक दूसरे के सत्तास्थानों में नहीं जाने वाले होने से तथा तीर्थंकर आदि का बंध नहीं होने से एक भी भूयस्कार नहीं होता है और अस्सी एवं चौरासी के सत्तास्थानों से ग्यारह के सत्तास्थान में जाने से तथा इक्यासी एवं पचासी के सत्तास्थानों से बारह के सत्तास्थान में जाने से ग्यारह और बारह प्रकृतियों के सत्तारूप दो अल्पतरसत्कर्मस्थान होते हैं।
पूर्वोक्त अस्सी आदि चार सत्तास्थानों में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अन्तरायपंचक, इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने से चौरानवै, पंचानवै, अट्ठानवै और निन्यानवै प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं । ये सत्तास्थान क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में नाना जीवों की अपेक्षा होते हैं।
इन्हीं चौरानवै आदि चार सत्तास्थानों में निद्रा और प्रचला का प्रक्षेप करने से छियानवै, सत्तानवै, सौ और एक सौ एक प्रकृतिक रूप चार सत्तास्थान होते हैं। ये चारों सत्तास्थान क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरमसमय पर्यन्त अनेक जीवों की अपेक्षा घटित होते हैं। किन्तु
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