Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
विशेषार्थ - गाथा में आठ मूल कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा बंधस्थानों की संख्या बतलायी है कि-
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दर्शनावरण के बंधस्थान तीन, मोहनीय के बंघस्थान दस और नामकर्म के बंधस्थान आठ हैं तथा इन तीन कर्मों से शेष रहे ज्ञानावरण, अन्तराय, वेदनीय, आयु और गोत्र, इन पांच कर्मों में प्रत्येक का एक-एक बंधस्थान होता है । तथा जिस कर्म के जितने बंधस्थान होते हैं, उस कर्म के उतने अवस्थितबंध होते हैं । इसीलिये गाथा में संकेत किया है कि अवस्थितबंध सब कर्मों में बंधस्थान के समान होता है । जिसका सविशद स्पष्टीकरण इस प्रकार है ।
दर्शनावरण- इसके तीन बंधस्थान हैं- नोप्रकृतिक, छहप्रकृतिक और चार प्रकृतिक | उनमें से दर्शनावरण कर्म की सभी प्रकृतियों का समूह नौप्रकृतिक बंधस्थान हैं । स्त्यानद्धित्रिक-निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि - से रहित छहप्रकृतिक और इसमें से निद्राद्विक - निद्रा, प्रचला से रहित चार प्रकृतिक, इस प्रकार तीन बंधस्थान होते हैं ।" जिनको इस प्रकार समझना चाहिये कि सासादनगुणस्थान
१ (क) गो. कर्मकांड में भी इसी प्रकार से उत्तरप्रकृतियों के बंधस्थानों का निर्देश किया है
तिष्णिदस अट्ठट्ठाणाणि
मोहणामाणं ।
दंसणावरण एत्थेव य भुजगारा सेसेसेयं हवे ठाणं ॥१४५८ ॥
दर्शनावरण, मोह और नाम कर्म के क्रमण: तीन, दस और आठ बंधस्थान होते हैं और इन्हीं में भुजाकार आदि बंध होते हैं। शेष कर्मों में केवल एक-एक ही बंधस्थान होता है ।
(ख) दि. पंचसंग्रह, शतक अधिकार, गाथा २४२
२ गो० कर्मकाण्ड में भी दर्शनावरण के बंधस्थानों और उनके स्वामियों को
इसी प्रकार बतलाया है
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