Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५
तक तो सभी प्रकृतियों का बंध होता है। जिससे सासादनगुणस्थान तक नौप्रकृतिक बंधस्थान पाया जाता है। उसके बाद सासादनगुणस्थान के अन्त में स्त्याद्धित्रिक के बंध की समाप्ति हो जाती है, अतः आगे सम्यक्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग तक छहप्रकृतिक बंधस्थान होता है और प्रथम भाग के अन्त में निद्रा और प्रचला के बंध का निरोध हो जाता है अतः अपूर्वकरण गुणस्थान के दूसरे भाग से लेकर दसवें गुणस्थान तक शेष चार ही प्रकृतियों का बंध होता है। इसी कारण दर्शनावरण कर्म के नौ, छह और चार प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं।
मोहनीय कर्म-इसके दस बंधस्थान हैं-बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक। इनमें से बाईस का बंधस्थान मिथ्यादृष्टि, इक्कीस का बंधस्थान सासादन, सत्रह का मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि, तेरह का देशविरत, नौ का प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान में जानना चाहिये एवं पांच से
णव छक्क चदुक्कं च य विदियावरणस्स बंधठाणाणि । भुजगारप्पदराणि य अवट्ठिदाणिवि य जाणाहि । ४५६॥ गव सासणोत्ति बंधो छच्चेव अपुव्वपढममागोत्ति । चत्तारि होति तत्तो सुहुमकसायस्स चरिमोत्ति ।।४६०।।
अर्थात्-दूसरे दर्शनावरण कर्म के नौ प्रकृति, छह प्रकृति और चार प्रकृति रूप, इस तरह तीन बंधस्थान हैं तथा इनके भुजाकार, अल्पतर और अवस्थित बंध ये तीन बंध होते हैं । अपि शब्द से अवक्तव्यबंध भी होता है।
दर्शनावरण का नौप्रकृतिरूप बंध सासादनगुणस्थान पर्यन्त, उसके बाद ऊपर अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले भाग तक छह प्रकृतियों का और उसके बाद सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के अन्त समय तक चार प्रकृतियों का
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