Book Title: Panchsangraha Part 05
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंध विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
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हैं । जिससे नामकर्म के बंधस्थान आठ होते हैं तथा नामकर्म का बहुभाग पुद्गलविपाकी है, उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शरीररचना में होता है । अतः भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा एक ही बंधस्थान की अवान्तर प्रकृतियों में अन्तर पड़ जाता है ।
वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात ये नामकर्म की नौ ध्रुवबंन्धिनी प्रकृतियां हैं। जिनका चारों गति के Satara बंध होता है । इन प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डकसंस्थान, स्थावर, बादर-सूक्ष्म में से एक, प्रत्येक-साधारण में से एक, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय और अयशः कीर्ति इन चौदह प्रकृतियों को मिलाने से तेईस - प्रकृतिक बन्धस्थान होता है । यह स्थान एकेन्द्रिय अपर्याप्त प्रायोग्य प्रकृतियों का बंधक बांधता है ।
इन तेईस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम कर पर्याप्त, उच्छ - वास और पराघात प्रकृति को मिलाने से एकेन्द्रिय पर्याप्त प्रायोग्य पच्चीस का स्थान होता है । उनमें से स्थावर, पर्याप्त, एकेन्द्रियजाति, पराघात और उच्छ् वास को कम कर उनके स्थान पर त्रस, अपर्याप्त, द्वीन्द्रियजाति, सेवार्तसंहनन और औदारिक अंगोपांग के मिलाने सेद्वन्द्रिय अपर्याप्तयोग्य पच्चीस का स्थान होता है । इनमें से द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर त्रीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति के स्थान पर चतुरिन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति के मिलाने पर क्रमशः त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त प्रायोग्य पच्चीस का स्थान होता है तथा इसमें तिर्यंचगति के स्थान पर मनुष्यगति के मिलाने से मनुष्य अपर्याप्त प्रायोग्य पच्चीस का स्थान होता है ।
मनुष्यगति सहित पच्चीस - प्रकृतिक बंधस्थान में से त्रस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सेवार्तसंहनन और औदारिक अंगोपांग
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